राजापुर में जन्मे थे तुलसीदास

 गोस्वामी तुलसीदास का जन्म संवत 1554 में सावन मास की सप्तमी को राजापुर में हुआ था। जन्म के समय रामनाम का उच्चारण करने की वजह से उनका नाम रामबोला पड़ गया था।  आत्माराम दुबे और हुलसी की इस संतान का बचपन काफी अभाव में बीता लेकिन पत्नी रत्नावली के अगाध प्रेम ने उनकी जीवनधारा ही बदल दी। रामबोला बाबा नरसिंहदास के सानिध्य में आने के बाद तुलसीदास के रूप में हीरा बनकर चमके। बाबा उन्हें अयोध्या ले गए और उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया। तुलसीदास ने इसके बाद देश के विभिन्न तीर्थो में घूम कर रामचरित मानस को लिखा। उनकी हस्तलिखित रामचरित मानस का अयोध्या कांड राजापुर के मानस मंदिर में रखा है। बाबा की इस धरोहर की रक्षा उनके शिष्य वंशज मानस मंदिर के महंत रामाश्रय त्रिपाठी कर रहे हैं। उनके मुताबिक आज लोग बाबा की जन्मस्थली को लेकर विवाद करने लगे हैं लेकिन गोस्वामी तुलसीदास का जन्म राजापुर में हुआ था इसका सबसे बड़ा प्रमाण हस्तलिखित रामचरित मानस है। साथ ही उनके द्वारा स्थापित संकट मोचन मंदिर है।

1908 से शुरू हुआ विवाद : जब गोस्वामी तुलसीदास पैदा हुए थे तो उनके मुख में पूरे बत्तीस दांत थे तथा उनकी कद काठी पांच वर्ष के बालक के समान थी। इन विचित्रताओं के कारण पिता अमंगल की आशंका से भयभीत हो गए। अनिष्ट की आशंका से माता ने दशमी की रात को बालक को दासी के साथ ससुराल भेज दिया और दूसरे दिन स्वयं संसार से चल बसीं। दासी चुनियां बालक को हरिहरपुर ले आई। वहां पर पालन-पोषण बड़े प्यार से किया। साढ़े पांच वर्ष की उम्र में दासी चुनियां की भी मृत्यु हो गई और बालक अनाथ हो गया। कामदगिरि पर रहने वाले श्रीनरहरि दास जी ने उनका नाम रामबोला रखा लिया। तुलसी जन्मभूमि शोध समीक्षा पुस्तक की माने तो बाबा तुलसी जन्मभूमि का विवाद सन् 1908 में शुरू हुआ। जब बांदा जिले के तत्कालीन कलेक्टर लाला सीताराम ने राजापुर में रखी तुलसी की हस्तलिखित रामचरित मानस के अयोध्याकांड के दोहे ‘मैं पुनि निजगुरु सन सुनि कथा सो सूकरखेत, समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउं अचेत’ में सूकरखेत के सोरो पक्ष को तोड़ प्रस्तुत किया।
अकबर ने दिया था हाट-घाट का माफीनामा : रामगणोश पांडेय कहते हैं कि आईने अकबरी में भी सोरो या गोंडा के राजापुर में तुलसी का कोई उल्लेख नहीं है। जबकि राजापुर चित्रकूट में तुलसी के जन्मस्थान और अकबर के समय बने मंदिरों का उल्लेख है। अकबर ने तुलसी के शिष्य वंशजों को घाट हाट का माफीनामा भी दिया था जो अंग्रेजी हुकूमत तक जारी रहा। यह दस्तावेज आज भी राजापुर में है।

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